About Us

While endeavouring to rejuvenate the nation, th significance of co- operative sector, has been recognized and to enhance qualatative growth of co-operative movement, the Sahakar Baharati has last for 24 years has dedicatedly has performed with a moto of “ Bina Sanskar, Nahi Sahakar” and has engaged in building the team of socially devoated co-operative activists. By synchronizing, supplementing, co-ordinating various activites of different co-operative units and developing attachment among themselves, we can create a well organized , co- ordinated co-operative power and on the strength of it we have confidence to solve the emerging challenges faced by co-operative sector.

Sahakar Bharati has conducted many symposiums and seminars on themes like “ Rural development through cooperation” , “ Co-operation – The pillar of Indian Economy”, “Automonous Co-operatives and self reliant India”, “ Co-operation – An option to free economic policy”. Thus we have during last 24 years have been able to do introspective transformation in the Co-operative / Financial organizations. Co- operative movement should remain automonous and co-operative law which has become an impediment in development of co-operative sector should be changed. These are the foremost demands of the Sahakar Bharati is pursuing. You must be aware that this activity has made Government of Maharashtra to reconsider some provision in co-operative laws. Untile now 7 states have passed the ‘Self – Relient co-operative Act’ in Kerala state to implement the above act ‘ Post Card Movement’ was taken place. The Sahakar Bharati has lodged the suit in Karnataka High Court against the levy of ‘Co-operative Welfare Tax’ and won the case. We have put lot of efforts in implementing “Crop Insurance scheme for farmers. We have also remained fore front in solving problems in co-operative sector. Sahakar Bharati is also involved in many creative and project oriented work and also reconstructing such organizations. Live example of this the revival of Madhopura Mercantile Co-operative Bank in Gujarat. With all such panoram ie.activities Sahakar Bharati is able to change the face of co-operative sector in India up to large extend.

We have firm conviction that co-operative movement should be indifferent and free from political veil and interference. Hence many of our seminars are graced by the eminent person from all walks of life; irrespective of their political faith. We remain grateful to Ex-Home Minister of India Shri. Shankar rao Chavan, Ex-speaker of lok Shabha Shri Shivraj Patil, Ex- deputy Chief Minister of Maharashtra Shree Gopinath Munde, Ex-minister of state co-operative shri Jaising Gaikwad , noted economist Shri. Nilekant Rath, founder of B.M.S. Shri Dattopant Thangadi, former Sirsanghachalaks of RSS like late Balashab Deorus and Rajju Bhaiiya and former chief justice of high court Shri. Ram joyes who is presently governer of Zarkhand , Co-operative minister of Orrisa state Shri. Arvind Dhali , for their guidance.

Our mission is to bring ideal growth, to do pubilicity and expand co-operative movement and start ideal co-operative societies in each district of the country. Sahakar Bharati has becomes omnipresent in India’s co-operative field. To take this movement ahead in our silver jubilee year we have decided to organize many functions all over the country.Sahakar Bharati has becomes omnipresent in India's co-operative field.

SHRI DATTATREYA BAPURAO alias DATTOPANT THENGADI

FOUNDER MEMBER OFSAHAKAR BHARATI

Born on 10the November, 1920 at Arvi Wardha district of Maharashtra is well known as a Scholar and organiser. For over half a century he has been a Pracharak of the Rashtriya Swayamsevak Sangh.The Bharatiya Mazdoor Sangh founded by him four decades ago is presently the foremost labour organisation in the country. He is also the founder of Bharatiya Kisan Sangh, Samajik Samrasata Manch, Swadeshi Jagaran Manch, Sarve Panth Samadar Manch and Paryavaran Manch. He is also founder Member of Akhil Bharatiya Vidyarthi Parishad and Sahakar Bharati. Shri Thengadi was a member of the Rajya Sabha for 12 years. He is widely travelled. In addition to continuous organisational work to strengthen nationalist feelings in the masses, Shri Thengadi has been a prolific writer in English, Hindi and Marathi. The books and occasional booklets authored by him number over a hundred. These include “Nationalist Pursuit” (1992) and “Our National Renaissance. Its Directions and Destination” (reprinted, 1993), both published by Sahitya Sindhu Prakashana.

 

 

श्रध्देय लक्ष्मणराव इनामदार (वकील साहब)

व्यक्तित्व एवं जीवन दर्शन

श्रध्देय लक्ष्मणराव इनामदार त्याग, सरलता, विनम्रता, निराभिमानता, सादगी, और देशभक्ति के मूर्तिमंत प्रतीक थे। वेषभूषा, व्यवहार व विचारों के साथ चिंतन से वे पूर्णतया भारतीय थे। परस्पर अन्योन्याश्रति सहयोग व सहकार उनके जीवन की विशेषता थी। यह संस्कार उन्हे परिवारिक विरासत में मिला था। पू. पांडूरंग शास्त्री आठवले जी ने उनके जीवन के संदर्भ में कहा हैं कि, “लक्ष्मणराव करोड़ो लोगों में भारतीय परम्परा के उद्देश्य के अनुरुप संस्कार, ध्येयनिष्ठा, दृढ मनोबल,देश एवं धर्म के लिये समर्पित तथा मानवीय संस्कारों से ओतप्रोत समाज व राष्ट्र के अति सुंदर महकते पुष्प थे”। वे सर्व युवकों के लिये प्रेरणा बनकर, उन्नति के पथ पर ले जाने वाले असामान्य व्यक्तित्व थे।

1989 में “श्रध्देय लक्ष्मणराव इनामदार स्मृति व्याख्यान” मुंबई विद्यापीठ में सुप्रसिध्द अर्थ चिंतक मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने सहकारी लोगों को सम्बोधित करते हुये कहा था कि, “स्वतंत्रताके पहले सहकारिता क्षेत्र को श्रेष्ठ नेतृत्व देने की अति आवश्यकता अनुभूत की जा रही थी, उस कालखण्ड में मा. वैकुंठभाई मेहता, मा. विखे पाटील व मा. धनंजय राव गाडगील ने सहकारिता को अपने नवीन नेतृत्व का लाभ स्वतंत्रता के कुछ वर्षों बाद तक मिलता रहा किंतु आगे के कालखण्ड में सहकारिता क्षेत्र को दिशा व दृष्टि, नीति व नेतृत्व तथा संस्कारव सहकार देने का दायित्व लक्ष्मणराव इनामदार जी के उपर आया, इसी कार्य को आगे बढ़ाने का दायित्व सहकार भारती का है”। सहकारी मन, भावना व व्यवहार से ओतप्रोत लक्ष्मणराव इनामदार केवल एक व्यक्ति नहीं वरन् संगठन की भाँति थे।

प्राचीन काल से भारत की जीवन शैली की अभिन्न सहकारिता की प्रक्रिया भारत के व्यक्ति हो या परिवार गांव हो या वनांचल, समाज हो या संगठन, जाति हो या सम्प्रदाय, धर्म हो या महजब, सर्वस्व में समाहित था। सहकार व सहयोग, परस्पर अन्योन्याश्रित – परस्पर सहभागिता के सिध्दांत से विजय व विजिगीषु, समृध्दि व समंवय का श्रेष्ठ संदेश के भारतीय वाङ्मय दर्शन में अनेक उदाहरण है। इस विषय को महर्षि कात्यायन, याज्ञवल्क्य, सत्यकेतु, कौटिल्य, अशोक, अग्रसेन सरीखे महानुज्ञयों ने भी आगे बढ़ाया। आधुनिक काल में प्रो. आर. सी. मजूमदारने प्राचीन भारत में सहकारिता युक्त जीवन (Co-Operation Life in Ancient India) में, 27 प्रकार की सहकारिता का उल्लेख किया हैं। विकेंद्रीत व्यवस्था की संस्कार व व्यवहार से युक्त यह प्रक्रिया अपने देश में 20 वीं शताब्दी के प्रारंभिक समय 1904 में सहकारी कानून का रुप ग्रहण किया। तब यह साहूकारों से किसानों की रक्षा के लिये सहकारी उपक्रम बना था, बाद में सामान्य लोगों के लिये इस प्रक्रिया की शुरुआत हूयी।

इसी नियम एवं कायदा के आधार पर देश के सभी प्रांतो में सहकारिता की सोसायटियाँ गठित होने लगी। महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यभारत, कर्नाटक, आंध्र, असम, उडीसा, बंगाल जैसे प्रदेशों में ही नहीं तो हिमालय की दुर्गम हिम क्षेत्र से लेकर कन्याकुमारी तक सहकारिता के विभिन्न आयामों का जाल फैलने लगा।

देश की स्वतंत्रता के पश्चात् पूंजीवादी प्रक्रिया का दौर चला उसके दुष्प्रभाव को ध्यान में लेकर पंचवर्षीय योजनाओं में सहकारिता को बढ़ावा दिया गया, इससे थोड़ा प्रोत्साहन मिला तथा देश के गरीब, पिछड़े, बिछुड़े, वंचित, वनवासी, किसान, मजदूर, शिल्पकार व छोटे-छोटे उद्यम करने वाले वर्गों की समृध्दि को रेखांकित करने वाली प्रक्रिया का उपक्रम बना कर इसे जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया गया। जिसके कारण इसका प्रभाव बढ़ने लगा, जनता में जनजागृति आने लगी। बड़े प्रमाण में लोग इससे जुड़्ने लगे। इससे सहकारी लोगों के नेतृत्व क्षमता का विकास होने लगा। कुछ वर्षों में ही वे समाज जीवन के विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक व राजनैतिक क्षेत्र में नेतृत्व देने के लिये खड़े होने लगे। सहकारिता के लोगों में समाज जीवन को नेतृत्व देने की अद्भुत क्षमता की सर्वत्र अनुभूति होने लगी। राजनीति शक्तियों ने उनकी इसी क्षमता एवं महत्ता को सन् 60 के दशक के बाद राजनैतिक शक्ति के आधार बनाने का क्रम शुरुआत कर दिया। राजनैतिक शक्तियोंके हस्तक्षेप व सरकारी करण के कारण इसमें दोष उत्पन्न होने लगा और देखते ही देखते जो सहकारिता जनसामान्य की आर्थिक उन्नति की श्रेष्ठ प्रक्रिया थी व सहकारिता स्वाहाकारिता के दोष से ग्रासित होने लगा।

सुखद आनंद का विषय है कि देश की स्वतंत्रता के 11 वर्ष पूर्व ही इस विषय की क्षमता व समता तथा इससे जन-जन की समृध्दि खड़ी करने की शक्ति एवं विशेषता को सांगली के मा. माधवराव जी गोड़बोले ने अनुभूत कियाथा। अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने सांगली में नागरिक सहकारी बैंक की सन 1936 में स्थापना की थी। कुछ वर्षों पश्चात उसका अच्छा प्रतिसाद दिखने लगा, इस कार्य को मा. मोरोपंत पिंगले जी से सहकार मिला। 1954 में दूसरी नागरिक सहकारी बैंक का गठन उनके मार्गदर्शन से पुणे में हुआ, इसके बाद एक दीप से जले दूसरा की भाँति 20 वर्षों में राष्ट्रवादी विचारकों के माध्यम से 15-20 बैंको की स्थापना हुयी। इसी बीच 1969 से मंदी बढ़ने लगी, आर्थिक मंदी ने उस कालखण्ड में सामान्य लोगों की कमर तोड़ दी। इसके निदान के उपाय क्या होंगे? सामान्य लोगों की अर्थव्यवस्था को संभालने की कार्य व प्रणाली क्या होगी? ऐसे अनेक विषयों पर विचारविमर्श चल रहा था। इसी बीच मा. लक्ष्मणराव इनामदार जी के हृदय में भारत के जन-जन की आर्थिक उन्नति व समान प्रगति के लिये मुल्याधारित, नैतिक, आर्थिक आन्दोलन की संकल्पना का सुत्रपात होने लगा था। अपने देश में आपातकाल ने राष्ट्रपति विचारकों को व्यापक विचार-मंथन का सुअवसर प्रदान किया। इसी मंथन से सहकारिता भारत की प्रकृति के अनुसार जनसामान्य की आर्थिक उन्नति तथा विकेन्द्रित आर्थिक रचना की श्रेष्ठ प्रजातांत्रिक पध्द्ति का अनुभव हुआ। इससे देश में समृध्दि व स्वावलंबन का मजबूत तानाबाना बनाकर सर्वसमावेशीय विकास का स्थायी मार्ग प्रशस्त किया जा सकेगा ऐसा स्पष्ट चित्र उभरकर सामने आया। इसी दृष्टी से इस प्रक्रिया की मजबूती के लिये उत्प्रेरक, मित्र तथा मार्गदर्शक के साथ समर्पित भाव से कार्य सम्पादित करने वाले सहकारी भावना व अनुभव से सिध्द कार्यकर्ताओं की श्रृंखला खड़ी करने की आवश्यक्ता महसूस हो रही थी। इसी समय मा. लक्ष्मणराव जीने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालिन पदाधिकारियों तथा सहकारिताकार्य व भावना से जुड़े सहकारी लोगों से विचार विमर्श कर सहकारी संस्था व सहकारी व्यक्तियों के बीच एक संगठन खड़ी करने का सुनिश्चिय कर सहकार भारती स्थापना के प्रेरणा पुरुष बनें।

सहकार भारती के गठन के समय एवं बाद में मा. लक्ष्मणराव जी का स्पष्ट मत था कि हमें सहकारिता क्षेत्र की शुध्दि, वृध्दि एवं समृध्दि के लिये व्यापक जन जागरण व सम्पर्क करना होगा।इस हेतु वे कहते थे जिस सहकारी संस्था के सदस्य जितने प्रमाण में सजग, तत्पर व समर्पित होते हैं उतनी वह संस्था ठीक प्रकारसे चलते हुये सदस्यों की समृध्दि के साथ समाज में सहकार व सहयोग का वायुमण्डल बनाते है। इसलिये उनका कहना था कि सभासद जागरण, ट्रेनिंग व पारदर्शिता से सहकारिता चलेगी तो यह प्रक्रिया जन सामाना को स्पर्श करेंगी। हमने स्पष्ट तथा अनुभव किया कि जो वकील साहब कहते थे आज उसकी सहकारिता क्षेत्र में अत्यंत आवश्यकता हैं। इसलिये अहमदाबाद अधिवेशन में हमने एक थीम दिया है “जागृत सभासद – सबल सहकार, सबल सहकार – समृध्द भारत” उनके जन्मशताब्दी वर्ष में हमें इसी आधार पर कार्य रचना करनी होगी। उन्होंने जो बीज बोया था वह आज वटवृक्ष बन विस्तार सहकारी व्यक्ति तथा सहकारी संस्थाओं द्वारा 400 जिलों में हुआ है। लगभग 2 हजार से अधिक केंद्रों में सहकार भारती की 2-3 लोगों की छोटी टीम हैं। सहकारिता के सभी आयामों में तज्ञ, विशेषज्ञ नियुक्त कर अलग अलग प्रकारकी सहकारिता में 15 प्रकोष्ठ बना कर अ. भा. समितियाँ बनाने का काम चल पड़ा हैं। वर्तमान 20,000 से ज्यादा सहकारी संस्थायें संलग्न हैं। आनंद का विषय है कि अब सहकारिता के विभिन्न शिर्षस्थ स्थान में अपने प्रत्यक्ष कार्यकर्ता नेतृत्व दे रहें हैं। शुचिता व पारदर्शिता आधारित सहकारिता का मार्ग प्रशस्त करने लक्ष्मणराव जी की साधना, तपस्या व प्रेरणा से हम प्रति दिवस आगे बढ़ रहें है।

सौभाग्य से जिनकों उन्होंने अपने हाथों तराश कर संघ प्रचारक बनाया तथा राष्ट्र व समाज कार्य के लिये उधृत किया। ऐसे भारत के प्रधानमंत्री सम्माननीय मा. नरेंद्र भाई मोदी जी को मा. लक्ष्मणराव इनामदार जी का श्रेष्ठ सानिध्य मिला। 2015 में मा. नरेंद्र भाई मोदी जी का चरित्र लिखने वाले निलंजन मुखोपाध्याय  लिखते हैं कि, “किसी जीवित या मृत व्यक्ति के प्रति इतनी श्रध्दा नरेंद्र भाई जी के मन में देखी नहीं जितना मा. लक्ष्मणराव इनामदार जी के बारे में उनके मन में हैं”।

      श्रध्देय लक्ष्मणराव जी के जीवन का एक उल्लेख मा. नरेद्र भाई मोदी जी ने कुछ इस तरह की हैं कि कार्य करते समय मन साथ दिया तो कम समय में, अधिक काम होता है किंतु मन कभी एक दिशा में विचार नहीं करता। अटपटे मन को काबू में रखने की अगर्निश आवश्यकता होती है। संत तुकाराम जी ने एक स्थान पर कहा है – “रात्र दिन आम्हा  युध्दा प्रसंग” हमारी तो अहर्निश लड़ाई चलती रहती है वैसे ही वकील साहब ऐसे संघर्षों से गुजरे है उन्होंने चार सुत्र दिये है जो हमारे लिये अति महत्व के है –

  1. मन नियंत्रण में नहीं है तब समझना कि वह शत्रु की भुमिका में है। वह अनेक प्रकार से हमें सत् मार्ग से च्युत करने का प्रयत्न करता है किंतु साहसके साथ हिम्मत से मन को वश में करने से विजय सुनिश्चित है।
  2. जो हिम्मत से लड़ाई लड़ता है उन्हें प्रतिदिन बल प्राप्त होता है।
  3. छोटे-छोटे नियम भी नियम पुर्वक पालन करना चाहिये। 14 जनवरी 1955 के दिन वे अपनी डायरी में वे लिखते है –“ नियम का बराबर पालन करना अति आवश्यक है। सहकार भारती में कार्य करते समय संगठन के नियम, कायदा व व्यवहार का पालन महत्व का विषय है”।
  4. मन खराब लत लगे लड़के के समान है, कुसंग जब तक है तब तक सुधरने की बात संभव नहीं, इसलिये नित्य नियम, अनुशासन, एवं ईश्वर आराधना से खराब विचारों में सए हम बच सकते है। वास्तव में सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने वालों के लिये यह श्रेष्ठ मार्गदर्शन है। 20 दिसम्बर 1955 को उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है कि – “आज पढ़ना नहीं हुआ, नियम टूटा क्योंकि दोपहर में आलस्य के कारण नींद आ गयी नियम भंग हुआ। उन्होंने कहा कि नियम भंग होना अर्थात संकल्प की कमी को दर्शाता है”। वैसे संकल्प मजबूत न होने पर छोटे-छोटे आवश्यक काम जैसे कभी व्यायाम नहीं किया, कभी देर से उठे, कभी गीता जयंती के दिन श्लोक याद करने का संकल्प पक्का करने पर राह निकलता जाता है। वे कहते थे सत् संकल्प व्यक्ति को योग्य दिशा में ले जाता है। ऐसी संकल्प की प्रेरणा से हम इस कार्य के लक्ष्य तक अवश्य ही पहुँचेंगे।

12 फरवरी 1968 को उन्होंने उल्लेख किया है कि एक बार एक कार्यकर्ता को उसके पत्र का जवाब देना था, एक पत्र लिखा अच्छा नहीं लगा, दूसरा लिखा वह भी ठीक नहीं था, तीसरा लिखा किंतु बार-बार ऐसा लग रहा थी कि पत्र में झुठी बाते लिख रहा हुँ, मन स्वीकार करने को तैयार नहीं अर्धसत्य भी कार्यकर्ता के लिये ठीक नहीं। उनका मानना था कि एक झुठ बोलने को आता है तो अकारण झुठ बोलने की आदत लग जाती है। कार्यकर्ता को सब समझ मे आता है, ऐसे अनेक प्रसंग कार्य के समय हम सबके साथ आता है। इसलिये सदैव सत्य बोलना, झुठ भी अच्छी पध्द्ति से बोलने के वे खिलाफ थे।

सहकार भारती में हम मानते है कि हमारी भुमिका Friend, Philosopher & Guide के रुप में है। वकील साहब की विशेषता थी कि उनके सानिध्य में आये कार्यकर्ता उनसे बातचीत व मार्गदर्शन के लिये आते थे। चर्चाओं में अनेक तात्विक विषयों पर बातचीत होती थी किंतु केवल तत्वज्ञान से काम नहीं चलता व्यवहार एवं तत्व में समानता आना आवश्यक है। वे कार्यकर्ताओं के लिये फिलोसोफर गाईड एवं मित्र की भूमिका में थे। पू. पांडुरंगशास्त्री आठवले जी ने श्रीकृष्ण की विशेषता पर प्रकाश डालते हुये लिखा है, “जो तत्वज्ञान में श्रेष्ठ होता है वह व्यवहार में कमजोर होता है और जो व्यवहार में श्रेष्ठ होता है वह तत्वज्ञान में कच्चा होता है। सामान्य तया कृष्ण जी व्यवहार एवं तत्वज्ञान दोनों में श्रेष्ठ थे। हम जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिये तत्वज्ञान छोड़ना नहीं किंतु सामान्य से सामान्य कार्यकर्ताका विकास यह विकासशील प्रक्रिया का अंग है इसलिये कार्यकर्ता विकास को ध्यान में रख कर तत्व एवं व्यवहारमें संतुलन बना कर कार्यकर्ता को संभाल करने की अद्भुत क्षमता श्रध्देय लक्ष्मणराव जी के जीवन में मिलती है”। सिध्दांत एवं व्यवहार के समन्वय साधने की उनकी अद्भुत क्षमता थी, जिसके कारण वे सभी के साथ सहज वार्तालाप कर मार्गदर्शन कर सकते थे।

पं. दीनदयाल मेडिकल रिसर्च सेंटर पुणे हो अथवा दीनदयाल शोध संस्थान के कार्य बीड़ जैसे अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, संगठनो के लक्ष्मणराव जी सम्पर्क अधिकारीव मार्गदर्शक थे। उनकी सहकारिता के विषय में निम्नांकित बातों की स्पष्ट मान्यता थी।

1.  हमारे देश में सहकारी आंदोलन ऐसी प्राथमिक संसाधन व प्रक्रिया खड़ा करें जो प्रजातांत्रिक, विकेंद्रित, सामान्य जन आधारित अर्थव्यवस्था को गति और संतुलित आर्थिक विकास की ओर ले जा सकें।

2.  सहकारिता आंदोलन सही मायने में दलित और कमजोर वर्गों की रक्षा मे आगे आये तथा सहकारिता के फायदों के बारे में जन जागृति हो यह समय की माँग है।

3.  गहन अध्यन और अनुसंसाधन द्वारा कार्यरत सहकारी संस्था से भविष्य में आने वाली संस्थाओं को विशेषज्ञों की सलाह व मार्गदर्शन की आवश्यकता है।

4.  नियमित अंतराल से प्रशिक्षण, शिविर, व्याख्यान, भाषण, संगोष्ठी या अधिवेशनों का आयोजन करने से अधिकाधिक लोग जागृत व संगठित होकर सहकारिता आंदोलन के माध्यम से आत्मनिर्भर संस्थायें खड़ी करें जो बाह्य दबाव और राजकीय हस्तक्षेप रहित होंगे।

5.  वनवासी, छोटे किसान, भुमिहीन मजदूर, ग्रामीण खेत मजदूर, बेरोजगार, शिल्पकार तथा मध्यम व निम्न उत्पन्न वाले ग्राहकों के उत्थान या प्रगति के लिये सहकारिता आंदोलन रक्षक की भुमिका निभायें। इसके लिये सशक्त, समर्पित एवं नि:स्वार्थी कार्यकर्ताओं की श्रृंखला खड़ी करें जो सहकारिता आंदोलन को समाज जगत में फैलाये ऐसा सहकार भारती की परिकल्पना व प्रयास है।

सहकार भारती के कार्य को पोषित, पुष्पित करने में उनका बड़ा योगदान है। प्रतिदिन पत्र लेखन का उनका स्वभाव था, वे अपने एक पत्र में अपने मित्र व श्री वसंत भाई चित्ते को लिखते है कि, इस समय महाराष्ट्र में सहकार भारतीका कार्य ठीक पध्द्ति से चल पड़ा है। काम ठीक-ठाक प्रमाण में बढ़ भी रहा है। सहकार क्षेत्र में अपने स्वयंसेवक कार्य कर रहे है। गुजरात में भी काम प्रारंभ हुआ है। “यह कार्य देश में 1904 से चल रहा है। इस कार्य में “बिना सहकार नहीं उध्दार” का घोष वाक्य दिया है। इसमेंमन की भुमिका की कमी है, सहकार याने स्वाहाकार की बात भी होती है। इसलिये हम लोगों ने “बिना संस्कार नहीं सहकार” यह बोध वाक्य जोड़ा है इसका व्यवहार भी हमारे लोगों में देखने को मिलता है। इस कार्य से सहकारिता की इमानदारी व पारदर्शिता से खड़ी होगी ऐसा स्पष्ट उल्लेख है।

वकील साहब कार्यकर्ता के मन को स्पष्ट पढ़्ते थे उन्होंने अपने पत्र में एक कार्यकर्ता को पत्र लिखते समय कहा  कि आपके विचार एवं भावना से पोलिटिकल लीडरशीप अथवा इस कार्य से कुछ पुरुष्कृत होने का भाव आता है। सत्ता, सम्पत्ति एवं प्रतिष्ठा के लिये हमारा कार्य नहीं, हमें दलगत राजनीति से उपर उठकर कार्य को दिशा देनी है। मान सम्मान, पद प्रतिष्ठा का भी भाव ठीक नहीं क्योंकि हम सह कार्यकर्ताओं के साथ काम करते है, यदि हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे तो उनके मन में अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। हम आज देखते भी है कि हमारी सरकार है वे उपकृत्य हो सकते है तो हम क्यों नहीं ऐसा भाव कहीं-कहीं आ जाता है अत: हमारे कार्य व्यवहार से मिस अंडरस्टँडिंग न बने ऐसा व्यवहार रखना हम सहकारी बंधुओं के लिये आवश्यक है।

देश के विभाजन, 1948 और 1975 का प्रतिबंध, सोमनाथ मंदिर का निर्माण, गौहत्या बंदी सत्याग्रह, चीन और पाकिस्तान के आक्रमण, विवेकानंद जन्मशती, गुजरात में बार बार आने वाले अकाल, बाढ़ व भुकम्प आदि जो भी चुनौतियाँ उनके कार्यकाल में समाज कार्य व देश के लिये आयी उन सब का उन्होंने डटकर मुकाबला किया।

महाराष्ट्र प्रदेश के सातारा जिला के खटाव गांव की सौंधी खुशबू में 21 सितम्बर 1917 को भारतीय कालगणना में भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की ऋषिपंचमी को उनका जन्म हुआ। महाराष्ट्र में गांव के साथ उपनाम की प्रथा  है जिससे उनका परिवार खटाव से खटावकर हुये, किंतु इनामदार उपनाम के पीछे एक अति महत्व ऐतिहासिक कारण उनके परिवार के साथ जुड़ा है।

उनके पुर्वजों में श्री कृष्णाराव खटावकर हुये, जिन्होंन छत्रपति शिवाजी, संभाजी एवं शाहूजी महाराज के कालखण्ड में अपना सम्पुर्ण जीवन स्वराज्य की सेवा में लगा दिया। उस कालखण्ड में ऐसे देश व समाज समर्पित व्यक्तित्वों को भुमि इनाम में दी जाती थी। श्री कृष्णाराव जी को छत्रपति शिवाजी महाराज के पौत्र एवं संभाजी महाराज के सुपुत्र छत्रपति शाहू जी महाराज ने उन्हे सरदार नाम से नवाजा एवं उन्हें जमीन इनाम में दी थी, जिससे उनका परिवार खटावकर से इनामदार कहलाये।

उनकी शिक्षा खटाव, दुधोंडी तथा सातारा में हुयी। उनके बाल्य सखा श्री गोपाल भाई गुर्जर लिखते है कि लक्ष्मणराव अध्ययन के साथ साथ खेलकूद में भी आगे रहा करते थे, प्रतिदिन प्रात:काल सातारा के अजिंक्य तारा की पहाड़ पर दौड़ के लिये जानाव वहाँ तरह-तरह की कसरत, व्यायाम, सुर्यनमस्कार करना तथा सायंकाल अखाड़े के खेलकूद मैदान में अलग-अलग खेल से सांघिक भावना का विकास करना हमारे दैनिक जीवन चर्या का अंग था। कसरत खेलकूद से लक्ष्मंराव जी को गामा पहलवान बनने की आकांक्षा नहीं थी। उसके बदले क्रिडा मण्ड्ल खड़ा कर अलग-अलग प्रकार के कार्यक्रम करवानेमें विशेष रुचि रहा करती थी। कबड्डी, खो-खो के वे निष्णात खिलाड़ी थे। कई बार वे इसके संघनायक भी बनें। खेल प्रतियोगिताओं में अनेक मण्डल ने अनेक ईनाम भी प्राप्त किये, व्यक्तिगत रुप में उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर खेलों की दुनियाँ में अनेक इनाम जीत कर अपने उपनाम को सार्थक करने वाले अद्वितीय व्यक्ति कहलाये।

श्री गोपाल राव जी के कथन का उल्लेख करते हुये सम्माननीय नरेंद्र भाई मोदी जी ने अपनी पुस्तक ‘सेतुबंध’ में उल्लेखित किया है कि सातारा के प्रख्यात एडव्होकेट श्री दादासाहब करंदीकर के घर पर प. पू. डा. केशव बलीराम पंत हेडगेवार जी का आगमन हुआ, उनके आगमन पर दादासाहब ने सातारा के अखाड़ा एवं मण्डली के चुने हुये 20-25 तेजस्वी युवकों को अपने घर आमंत्रीत किया था, जहाँ डा. हेडगेवार जी ने उन युवकों से चर्चा कर संघ की शाखा शुरुआत करने की प्रेरणा दी तथा प्रतिज्ञा विधि के कार्यक्रम के संबंध में वार्ता की, प्रतिज्ञा भी हुयी,किंतु उस समय लक्ष्मणराव जी ने डॉ. हेडगेवार जी के समक्ष बिना झिझक के अपनी बात कहीं। उनकी बातचीत की शैली, दिलदारपना एवं इंसान को अपनी बातों से जीतने की अद्भुत शक्ति ने डॉ. साहब सहित सभी को प्रभावितकिया, लक्ष्मणराव तथा उनके बड़े भाई रामभाऊ एवं गोपाल भाई गुर्जर तीनों ने उस दिन संघ कार्य, प्रतिज्ञा पर गहन विचार विमर्श किया तथा दूसरे दिन पुनश्च डॉ. हेडगेवार जी से मिलने गये एवं डॉ. साहब से प्रतिज्ञा लेकर स्वयंसेवक बनें।

लक्ष्मणराव जी ने कबड्डी एवं खो-खो से सामूहिक, परस्पर सहयोग, अनुशासन एवं एक साथ खेल खेलने का गुण सीखे थे वह संघ की शाखा में आने के बाद संघ कार्य पध्द्ति से और मजबूत होने लगा। यही संस्कार उन्हें अपने पारिवारिक विरासत में भी मिला था, इसलिये उनका हृदय सबके लिये एक एवं सब एक के लिये जैसे सहकारिता के संस्कार से ओतप्रोत था। इस संदर्भ की एक अतिमहत्व पुर्ण बात ऐसी है कि लक्ष्मराव जी का परिवार संयुक्त कुटुम्ब वाला था। उनके पिताजी के 2 भाई एवं 6 बहिनें थी तथा वे सात भाई एवं दो बहिनें, उनका पूरा परिवार संयुक्त था। दुर्दैव से उनके पिताजी की 4 विधवा बहिनें अपने बच्चों के साथ घर पर आ गयी थी, इसके कारण स्वाभाविक रुप से आर्थिक तंगाई व खींचतान थी। इसी समय उनके छोटे भाई किशन राव ने कहा की इतने बडे परिवार में सबकी प्रकृति अलग अलग है, स्वभाव तकलिफ उठानी पड़ती है। तब उस कालखण्ड में लक्ष्मराव जी ने समझाया कि ये सभी अपने परिवार के अंग है ऐसा समझ कर थोड़ा कष्टसहन करना पड़ताहै,थोड़ा अधिक काम भी करना पड़ता है वह स्वाभाविक भी है किंतु यदि ऐसा करने से उनके ऊपर आया हुआ दु:ख हल्का हुआ एवं भावी भविष्य उज्जवल हुआ तो वह अधिक काम करने एवं कष्ट सहन करने का एक विशेष आनंद ही है। ऐसे भावधारा के संस्कार उनके सहकारी मन, भावना एवं कृति को अभिव्यक्त करती है।

उनके नेतृत्व क्षमता के गुण को प्रदर्शित करने वालि 1939 की एक महत्वपुर्ण घटना है तब वे सातारा में एल.एल.बी. की पढ़ाई करते थे, उस कालखण्ड में सातारा हैदराबाद निजाम के अंतर्गत आता था। उस सअमय हैदराबाद निजाम के अत्याचारों के विरुध्द चलाये जाने वाला आंदोलन जोरों पर थी, तभी लक्ष्मणराव जी ने 150 महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के साथ आंदोलन में भाग लिया।

1943 में वे संघ प्रचारक बनें गुजरात उनका कार्यक्षत्र बना। प्रचारक जहाँ काम करते है उसके जीवन के साथ एकरुप होना उनकी विशेषता होती है। एक बार गुजरात की धरती पर पैर रखा तो महाराष्ट्र, खटाव, सातारा सब छुट गया और वे गुजरात के हो गये। भाषा, बोली या वेशभूषा से वे एक सामान्य गुजराती लगते थे। सामान्य कार्यकर्ता से लेकर समाज जीवन के अनेकानेक क्षेत्रों में काम करने वालों के साथ सहज सम्पर्क करना उनकी विशेषता थी, मा. दत्तोपंत ठेंगडी जी ने उनके पारिवारिक तथा सामाजिक सम्बंधों का उल्लेखकरते हुये कहा है कि, “ वे समवैचारिक परिवार के एक एक सदस्य की चिंता करते थे छोटी से छोटी बात भी उनके मन में होती थी। बड़े बुजुर्गों के स्वास्थ्य का विषय हो या फिर छोटों की पढ़ाई, सबका ध्यान रखना, परदेसम्मेन गये सदस्यों के संबंध में जानकारी लेना, उनका पत्र आया या नहीं? सुबह गयी बहन घर कब आने वाली है? उनकों कोई तकलीफ तो नहीं, घर में पार्टिशन लगाना था उसका क्या हुआ? ऐसे बड़े- छोटे कितने प्रश्नों की बात वे करते थे जानते थे इतनी आत्मियता के साथ वार्ता करने के कारण वे एक-एक परिवार के घटक के नाते से स्थापित थे”। उन्हे लक्ष्मणराव जी इनामदार से जानने वाले कम किंतु गुजरात के गांव-गांव, घर-घर में वकील साहब के नाम से सब परिचित थे। उनकी पहचान ही वकील साहबके रुप में थी। किसी का वर्षगाँठ हो या एनिवर्सरी हो, शादी की शुभ घड़ी हो या बीमार, कोई परीक्षा में पास हुआ हो या फेल,परिवार में किसी का निधन या अथवा कोई कष्ट वकील साहब एक-एक परिवार में अचुक हाजिर रहते। प्रवास में होने पर पत्र लिखना उनके स्वभाव का अंग था। समान्यता परिवारमें जिससे काम है उसी से बात व्यवहार नहीं तो बड़े छोटे माता बहिनों सभी से वार्ता करना उनकी कार्यशैली थी। परिवार के सभी लोगों का नाम भी उन्हें स्मरण रहता था।

संघ व समाज जीवन में कार्यकर्ताओं का चयन उनके साथ आत्मियता का संबंध बनाकर, उनके सुप्त गुणों का विकास तथा दोषों को दूर करने की गजब की अंतरभूत व्यवहार के कारण उनके सानिध्य में आये हजारों-हजार लोगों को प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष कार्य में लगा कर, सटिक मुल्यांकन करते हुये कार्य वृध्दि, संभाल व पोषक के रुप में खड़े करने की उनकी कार्य शली ने कार्यकर्ताओं बीच पालक, मार्गदर्शक के रुप में उन्हें प्रतिष्ठित किया। वे 1952 में प्रांत प्रचारक तथा 1976 में महाराष्ट्र, गुजरात प्रदेश के क्षेत्र प्रचारक बने तभी प. महाराष्ट्र, विदर्भ व नागपूर में उनके अनुभव का लाभ मिलने लगा। अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख बनने पर उनके अनुभव का लाभ पूरे देश को मिलने लगा था।

उनका सम्पुर्ण जीवन परिव्राजक की भाँति था प्रवास में समय निकालकर कार्यकर्ताओं से सम्पर्क कर लेना उनके व्यवहार की खास विशेषता थी। व्यापक सम्पर्क जन-जन तक सम्पर्क के वे धनी थे। कार्य के प्रति इतने तन्मय थे कि अहर्निश कार्य के कारण उन्हें कैंसर जैसा रोग लग गया तब भी वे स्वास्थ्य लाभ के समय कार्यकर्ताओं के बीच में रहना चाहते थे। उनके जीवन की एक-एक घटनायें सहकारिता तथा सहकार भारती के कार्य व कार्यकार्ताओं के लिये अत्यंत उत्प्रेरक है। इस दृष्टि से हम सभी इस जन्म शताब्दी वर्ष में उनके जीवन से प्रेरणा लेकर जागृत सभासद सफल सहकार की सफलता के लिये प्राण प्रण से लगेंगे ऐसा संकल्प लें। वें 15 जुलाई 1985 को पुणे में शरीर छोड़ गये, किंतु सच्चे कार्यकर्ताके तत्व एवं व्यवहार में आज भी वे जीवंत है। उनके विचार एवं व्यवहार की सुगंध न केवल सहकार भारती अपितु समाज प्रेरित कार्य में आज भी व्याप्त है। उनसे प्रेरणा लेकर हम जीवंत कार्यकर्ता की दिशा में अग्रसर होवें।

।सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया।

॥सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माँ कश्र्चित दु:ख भागभवेत्॥